Bhagavad-gita: The Universal Form, Text 26 to 31, Chapter 11
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः ।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गै ॥
amī ca tvāṅ dhṛtarāṣṭrasya putrāḥ
sarvē sahaivāvanipālasaṅghaiḥ.
bhīṣmō drōṇaḥ sūtaputrastathā.sau
sahāsmadīyairapi yōdhamukhyaiḥ৷৷11.26৷৷
vaktrāṇi tē tvaramāṇā viśanti
daṅṣṭrākarālāni bhayānakāni.
kēcidvilagnā daśanāntarēṣu
saṅdṛśyantē cūrṇitairuttamāṅgaiḥ৷৷11.27৷৷
भावार्थ : वे सभी धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आप में प्रवेश कर रहे हैं और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा वह कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सबके सब आपके दाढ़ों के कारण विकराल भयानक मुखों में बड़े वेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दाँतों के बीच में लगे हुए दिख रहे हैं॥26-27॥
तथा तवामी नरलोकवीराविशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥
yathā nadīnāṅ bahavō.mbuvēgāḥ
samudramēvābhimukhāḥ dravanti.
tathā tavāmī naralōkavīrā
viśanti vaktrāṇyabhivijvalanti৷৷11.28৷৷
भावार्थ : जैसे नदियों के बहुत-से जल के प्रवाह स्वाभाविक ही समुद्र के ही सम्मुख दौड़ते हैं अर्थात समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे नरलोक के वीर भी आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं॥28॥
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥
yathā pradīptaṅ jvalanaṅ pataṅgā
viśanti nāśāya samṛddhavēgāḥ.
tathaiva nāśāya viśanti lōkā-
stavāpi vaktrāṇi samṛddhavēgāḥ৷৷11.29৷৷
भावार्थ : जैसे पतंग मोहवश नष्ट होने के लिए प्रज्वलित अग्नि में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं॥29॥
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रंभासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥
lēlihyasē grasamānaḥ samantā-
llōkānsamagrānvadanairjvaladbhiḥ.
tējōbhirāpūrya jagatsamagraṅ
bhāsastavōgrāḥ pratapanti viṣṇō৷৷11.30৷৷
भावार्थ : आप उन सम्पूर्ण लोकों को प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रास करते हुए सब ओर से बार-बार चाट रहे हैं। हे विष्णो! आपका उग्र प्रकाश सम्पूर्ण जगत को तेज द्वारा परिपूर्ण करके तपा रहा है॥30॥
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यंन हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥
ākhyāhi mē kō bhavānugrarūpō
namō.stu tē dēvavara prasīda.
vijñātumicchāmi bhavantamādyaṅ
na hi prajānāmi tava pravṛttim৷৷11.31৷৷
भावार्थ : मुझे बतलाइए कि आप उग्ररूप वाले कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार हो। आप प्रसन्न होइए। आदि पुरुष आपको मैं विशेष रूप से जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति को नहीं जानता॥31॥
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